पूज्य गुरुदेव के सानिध्य में रहकर नववर्ष का स्वागत

ईछुक साधक नववर्ष की पूर्व संध्या को साधना धाम में पधारकर पूज्य गुरुदेव का आशीर्वाद लेते हुए नववर्ष का स्वागत कर सकते हैं। अपने आने की सूचना कम से कम 2 दिन पूर्व प्रबंधक को अवश्य दे दें
— युगपुरुष

स्वामी रामानंद जी

स्वामी रामानंद जी

भगवान को जब अशांत, दुःखी, पथभ्रष्ट तथा विक्षिप्त मानव पर दया आती है तो उसके उद्धार के लिए धरती पर संत पुरुष प्रकट होते हैं। बीसवीं सदी में एक ऐसे ही विद्वान दार्शनिक पुरुष ने जन्म लिया, जिनमें गुरुनानक देव जी का सेवा, समर्पण भाव, रामकृष्ण परमहंस की तड़प और श्री अरविन्द जैसी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ थीं। उनकी अवरोह पाठ की साधना थी और सत्य, सेवा, समर्पण तथा प्रेम था उसका आधार।

स्वामी जी का जन्म 16 दिसम्बर, 1916 को झांसी प्रांत के ललितपुर नामक स्थान में हुआ था। इनकी माता श्रीमती वेद कौर तथा पिता श्री साईंदास भण्डारी थे। इनके दादा श्री बटालिया राम भण्डारी मुँसिफ़ थे जो न्यायशील, सत्यनिष्ठ, और सच्चे देशभक्त थे तथा आदर्श आर्य समाजी थे। ननिहाल भी इनका धर्मनिष्ठ परिवार था। स्वामी जी अपने माता-पिता की पाँचवी संतान थे। इनकी एक छोटी बहन रुकमणी देवी थीं। ढाई वर्ष की छोटी सी अवस्था में इनकी माता जी का स्वर्गवास हो गया। इनके पालन-पोषण का कार्य पहले इनकी बड़ी बहन राम प्यारी जी ने किया बाद में बड़ी भाभी पद्मावती जी ने किया। इनका बचपन का नाम शिशुपाल था। घर में सभी इन्हें पर से पाल जी बुलाते थे। माता जी के स्वर्गवास के बाद पिता जी परिवार सहित पैत्रक गाँव वैरोवाल (अमृतसर प्रांत में) वापिस आ गए।

आरंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। सात वर्ष की आयु में तीसरी कक्षा में दाखिल कराया गया। पढ़ने में अत्यंत रुचि रही। छः वर्ष की चोटी आयु में ही भीष्म पितामह की जीवनी याद कर ली थी और दूसरों को सुनाया करते थे। स्वभाव से संकोची परन्तु अतिशय कुशाग्र बुद्धि थे। परिणामस्वरूप चौथी श्रेणी से बी.ए. तक हर कक्षा में पूरे पंजाब में सदैव सर्वप्रथम रहकर छात्रवृति पाते रहे। एम.ए. मे एक अंक काम होने के कारण पंजाब विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान प्राप्त किया। आपकी सम्पूर्ण शिक्षा लाहौर में हुई।

विद्यार्थी जीवन में वह सदैव अपनी विद्वता, सरलता और निष्कपटता के कारण सहपाठियों और अध्यापक वर्ग के आदर पात्र तथा आकर्षण बिन्दु रहे। महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानन्द तथा दर्शन-शास्त्र के भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों की महान कृतियों और गीता तथा वेदों का गम्भीरए अध्ययन किया। इससे जीवन को और ऊंचा बनाने की प्रेरणा मिली। संघर्ष और व्याकुलता बढ़ी। आदर्श के बिना सूना लगता। कहीं से योगाभ्यास और कहीं से ध्यान साधना सीख गए।

श्री स्वामी सत्यानन्द जी को गुरु स्वीकार कर “राम” नाम जपना प्रारंभ किया। घरवाले चाहते थे कि आप आई.सी.एस. प्रतियोगिता में भाग लेकर ऊंचा पद प्राप्त करें किन्तु आप अपनी अंतरात्मा के आदेश का पालन करते हुए घर छोड़ कर चल पड़े अपने लक्ष्य की ओर। 17 नवंबर, 1940 को 24 वर्ष की छोटी से आयु में यह कहते हुए गृह त्याग किया “मेरे राम मेरे साथ सदा रहे हैं और आगे भी रहेंगे”।

होशियारपुर में साधु आश्रम में श्री स्वामी सत्यानन्द जी से संन्यास की दीक्षा लेकर काषाय वस्त्र धारण किए और गुरु से नया नाम “रामानन्द” प्राप्त किया। कुछ दिन वहाँ रहकर, एकांत साधना के लिए फरवरी 1941 में अल्मोड़ा गए और वहाँ से फिर दिगोली पहुंचे।  

दिगोली अत्यन्त रमणीय छोटा स स्थान है जो चीड़ के पेड़ों से घिरा हुआ है। यहाँ रहकर आपने घोर साधना की और दिव्यत्व प्राप्त किया। यहाँ रहकर आपने रामायण तथा श्रीमद्भागवात की कथा एवं संकीर्तन से यहाँ के लोगों को मोह लिया।

घर छोड़ने से पूर्व आपने बायोकैमिक दवाइयों की जानकारी प्राप्त की थी। कुछ दवाइयाँ साधा आपके साथ रहती थीं जिससे आप दूर गावों में जाकर रोगियों की सेवा करते थे। आपका संन्यस्त जीवन केवल 11 वर्ष और 5 माह का रहा किन्तु इसमें भी आपने स्नेहपूर्ण व्यवहार से कितनों का मार्गदर्शन किया, कितनों को अपना बनाया। जो भी आपके संपर्क में आता आपका ही हो जाता। यहाँ गरीब-अमीर का कोई भेदभाव नहीं था। आपने उत्तर में कैलाश पर्वत से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक तथा पूर्व से पश्चिम तक के सभी तीर्थ स्थानों की यात्रा की।

स्वामी जी को दो चीजें अत्यन्त प्रिय थीं। आध्यात्मिक शिखर तक पहुंचना और मानव सेवा। आध्यात्मिक विकास ही मनुष्य का चरम लक्ष्य है, इसी उद्देश्य से उन्होंने साधना शिविर लगाने प्रारम्भ किए। कई साधनोपयोगी पुस्तकें हिन्दी व अंग्रेजी में लिखीं- आध्यात्मिक विकास, आध्यात्मिक साधन भाग-1 व भाग-2, जीवन रहस्य, गीता विमर्श, कैलाश दर्शन, Evolutionary Outlook on Life, and Evolutionary Spiritualism।

इस साधना पथ पर चलने वालों में शान्त रहना, अहंकार शून्य होना, हृदय में सरलता, दया, स्नेह तथा सहानुभूति की प्रधानता होना, संतोष, संयम और सदाचार की वृद्धि स्वयं ही होती है।

हमें स्वामी जी के इस विचार पर ध्यान देना चाहिए- “सुख निर्भर करता है इस पर कि हम क्या कर पाते हैं दूसरों के लिए। स्वार्थी जीवन में चैन नहीँ। जिसने देना नहीं सीखा, प्रेम करना नहीं सीखा उसके जीवन में आनन्द कहाँ?”

ऐसे पावन गुरु के चरणों में कोटि कोटि प्रणाम अर्पित हैं।

15 अप्रैल, 1952 को 36 वर्ष की अवस्था में आपने हरिद्वार कनखल में अपनी सांसारिक लीला समाप्त की और सबको बिलखता छोंड़ गए। किन्तु शीघ्र ही सबको आपकी सूक्ष्म रूप से समीपता अनुभव होने लगी। आज भी आप हम सबका मार्गदर्शन सूक्ष्म रूप से कर रहे हैं।