पूज्य गुरुदेव के सानिध्य में रहकर नववर्ष का स्वागत

ईछुक साधक नववर्ष की पूर्व संध्या को साधना धाम में पधारकर पूज्य गुरुदेव का आशीर्वाद लेते हुए नववर्ष का स्वागत कर सकते हैं। अपने आने की सूचना कम से कम 2 दिन पूर्व प्रबंधक को अवश्य दे दें
— स्नेहमयी

सुमित्रा माँ

स्नेहमयी सुमित्रा माँ

परम पूज्य गुरुदेव भगवान स्वामी रामानन्द जी की प्रतिनिधि करुणामयी, दयामयी, पावन प्रीति की साक्षात मूर्ति, बेसहारों की सहारा, दीन दुखियों की खोज खबर रखने वाली थीं “माँ”। माँ जी बड़ी मेधावी, मधुरभाषिणी, संगीतज्ञा और शिष्टाचार की अच्छी व्यवस्थापिका थीं। उनका प्रभाव, व्यक्तित्व और कण्ठमाधुर्य सबको विमुग्ध कर लेता था।

‘माँ जी’ का जन्म सन् 1911 में बटाला (पंजाब) में बेदी परिवार में हुआ था। इनके माता-पिता धार्मिक वृत्ति के थे। इनके घर में नित्य प्रति चार-पाँच घंटे का सत्संग भजन होता था। ऐसे संस्कारमय वातावरण में पालन-पोषण हुआ और माँ जी की भी दिनचर्या- प्रातः जल्दी उठना ओम् का जाप करना, आर्य समाज की पाठशाला में विद्याध्ययन को जाना, धर्म ग्रंथों का पढ़ना- बन गई थी। हिन्दी एवं गुरमुखी का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया था। सन् 1926 में एक सम्पन्न खत्री परिवार में इनका विवाह हो गया। इनके पतिदेव एक अच्छे फोटो आर्टिस्ट थे। पतिदेव दिनभर अपने कार्य में व्यस्त रहते और माँ जी सत्संगों में जातीं । इनके मधुर कण्ठ ने इन्हें सर्वप्रिय बना दिया था। 27 वर्ष की अवस्था तक तीन पुत्रों एवं एक पुत्री की माँ बन चुकी थीं। इसी बीच इन्होंने पहले ‘भूषण’ और फिर ‘प्रभाकर’ की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। इन्हें डी.ए.वी. गर्ल्स कॉलेज में हिन्दी की अध्यापिका का कार्य मिल गया।

माँ जी के पति का स्वास्थ्य बिगड़ने लग गया था। उन्हें टी.बी. और मधुमेह बताई गई। लाहौर में उनका इलाज शुरू हुआ। माँ जी ने अपना पत्नी धर्म निभाया, पति को कभी चंबा तो कभी बटाला इलाज के लिए लेकर गईं, साथ ही जहां भी  गईं, नौकरी भी करती रहीं। किन्तु अपना भजन कीर्तन नहीं छोड़ा। चंबा की रानी ने इनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर इनकी बहुत सहायता की थी। पति की अथक सेवा करने पर भी वे उन्हें बचा नहीं पाईं और 1944 को वे परलोक सिधार गए। अब माँ जी का जीवन साधना सत्संग में अधिक व्यतीत होने लगा। एक दिन इनके चाचा जी ने इन्हें एक बालयोगी से मिलाया उन्होंने माँ जी को समझाया- “संसार चक्र में योग वियोग तो चलता ही है। दुःख भी प्रभु की देन है। तुम समझ जाओ यह प्रभु की कृपा ही है तुम पर।”

सन् 1945 में बड़े बेटे ने भी माँ का साथ छोड़ दिया और अपने पिता के पास स्वर्गलोक को चला गया। माँ की दुनिया उजड़ चुकी थी किन्तु प्रभु की कृपा से विश्वास बना रहा। घर की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ रही थी किन्तु प्रभु ने सहायता की और वह भी धीरे धीरे सुधार गई। सन् 1947 में पाकिस्तान बनने पर जो शरणार्थी पंजाब में आते थे उनके लिए एक सहेली कुसुम त्रिवेदी ने सेवासदन नामक संस्था खोली। माँ जी भी इस संस्था से जुड़ गई। हर मंगलवार को यहाँ भी सत्संग होता था। सन् 1948 में सुमित्रा सेठी जी ने माँ जी से कहा कि “हमारे स्वामी जी जो कि स्वामी सत्यानन्द जी के परम प्रिय शिष्य हैं, कल आ रहे हैं, तुम अवश्य मिलने आना।” माँ जी तथा लीला जी शाम को वहाँ पहुंची तो देखा एक नवयुवक काषाय वस्त्रधारी हल्की हल्की दाढ़ी, लंबा गेरुआ चोला पहने सत्संग भवन में प्रविष्ट हुआ। उसने मुस्कराते हुए इधर उधर देखा और राम-राम कह कर अपना भाषण शुरू कर दिया। भाषण था प्रभु कृपा और समर्पण के विषय में। माँ का हृदय विह्वल हो उठा, आँखों से दो अश्रु टपक पड़े। माँ तो जीवन में बड़े-बड़े दु:ख सह चुकी थीं और प्रभु कृपा का भी उन्हें अनुभव हो चुका था। अगले दिन माँ जी को बुलाया गया। स्वामी जी ने पूछा- आप क्या भजन करती हैं? माँ जी बोलीं- “गायत्री मंत्र का जाप करती हूँ। गुरुवाणी मेरा ग्रंथ है और मेरी जननी ही मेरी गुरु है।” स्वामी जी ने आदेश दिया ‘ आँखें बंद करो’। माँ ने आँखें बंद कर लीं। राम राम की ध्वनि सुनी और सिर पर कोमलता से एक हाथ का स्पर्श महसूस किया कि बिजली की धारा शरीर में प्रवेश कर गई। सारा शरीर कम्पायमान हो गया। कुछ समय पश्चात~ आदेश हुआ ‘आँखें खोलो’। स्वामी जे ने आदेश दिया कि राम नाम का सुमिरन करते रहना। बस फिर तो राम नाम का जाप ही हर समय चलने लग गया। अब से स्वामी जी ‘माँ’ के लिए गुरु ‘परमेश्वर’ सभी कुछ बन गए। एक दिन स्वामी जी का पत्र आया- “मेरे भीतर भावना जगी है, वह यह कि जैसे कुलदीप (माँ जी का बेटा) तेरी गोदी में खेलता है, तेरी पावन गोदी में उसी तरह विश्राम पाना चाहूँगा। क्या वह माँ स्नेह तथा वात्सल्य का सौभाग्य तू मुझे देगी।” माँ जी ने उत्तर दिया – ” तू जहाँ रखे मुझे रहना है, जग क्या कहेगा इसकी मुझे चिंता नहीं। तू आज मेरे लिए मानव मे भगवान है।” दिल्ली में माँ को पहली बार ‘माँ’ का वास्तविक मातृत्व मिल जब वह पावन मस्तक पलभर के लिए माँ ने अपनी गोदी में पाया। माँ ने अनुभव किया कि एक वेगवान शक्ति की धारा अवतरित हो रही है। ठाकुर ने धीरे से अपना मस्तक उठाया और भावपूर्ण नेत्रों से सिर झुका कर प्रणाम किया। 15 अप्रैल 1950 में हरिद्वार में साधु महाविद्यालय में स्वामी जी ने कैम्प का आयोजन किया। माँ ने स्वामी जी से वरदान माँगा “महाराज मुझे वरदान दीजिए कि मैं साधना परिवार की आजीवन सेवा करती रहूँ।” महाराज के मुख से निकला ‘आशीर्वाद’ – आशीर्वाद’। स्वामी जी की अस्वस्थता में माँ जी हरिद्वार में दत्तकुटी में रहकर उनकी सेवा करती रहीं। स्वामी जी दिन में माँ को अपने पास से पलभर के लिए भी हटने नहीं देते थे। स्वामी जी कहा करते थे “माँ में अनन्त शक्ति छिपी है, माँ बहुत काम करेंगी।”

15 अप्रैल 1952 प्रातः 4 बजे माँ ने आवाज सुनी पाल जी माँ को बुला रहे हैं। माँ भागी अस्पताल की ओर। माँ ने अपने सामने अपने प्यारे आध्यात्मिक बेटे को जाते हुए बड़ी कटिनाई से दिल थाम कर देखा। माँ आधी पागल सी हो गईं।

15 अप्रैल से 21 अप्रैल तक प्रति वर्ष हरिद्वार में कभी कहीं कभी कहीं कैम्प लगने प्रारंभ हो गए। सन् 1959 में गुरुदेव का स्मारक बनवाने की माँ की भावना बहुत प्रबल हो गई। उसे कार्यान्वित करने के लिए माँ ने जगह-जगह रामायण पाठ, कीर्तन, व सत्संग करके धन एकत्र करना शुरू कर दिया।

1961 की नवरात्रों मे धाम का भूमि पूजन हुआ। माँ का संकल्प पूरा हुआ। धीरे-धीरे धाम में कैम्प लगने लगे। माँ धाम के प्रत्येक छोटे से छोटे प्रबंध को स्वयं देखती थीं। स्वच्छता, अनुशासन और राम नाम की तरंगें धाम में गूंजने लगीं।

8 मई 1979 को माँ जी रसोई घर में ही गिर गईं जिससे उनकी जांघ की हड्डी टूट गई। बहुत इलाज कराया गया। बेटा कुलदीप अपने पास ले गया और मिलिट्री हॉस्पिटल में भी इलाज कराया किन्तु माँ ठीक न हो सकीं और 7 दिसम्बर 1979 को अपना कार्य जो उन्हें गुरुदेव ने सौंपा था पूर्ण करके गुरुदेव के पास सदा के लिए चली गईं। ऐसा लगता है जो साधक बंधु इस लोक में हो सकने वाली साधना पूर्ण कर लेते हैं उन्हें परम पूज्य गुरुदेव अपने पास बुलाकर उच्च लोकों की साधना में अपने पूर्ण संरक्षण में लगा देते हैं।